Vedic Management
by Dr. S. Kannan
Taxmann Publications
The book is based on PhD Thesis of Dr. Kannan in "Sanskrit and Management" departments.
See the statements from 1903 - The statements are from Chapter 7.
Mantras quoted from Rigveda
Chapter 7. Vedas and Modern Business Management Practices
7.1 Financial management
7.1.1 Profitability management
7.1.2 Capital structure Planning
7.1.2a Financial intermediaries
7.1.3 Wealth
7.1.3a Fair mode for wealth acquisition
7.1.3b Wealth maximization
7.1.3c Multi-Sources of wealth
7.1.3d Enjoyer of wealth
7.1.3e Social distribution of wealth
7.1.3f Conservation of wealth
7.1.3g Poverty
7.2 Knowledge management
7.2.1 Knowledge acquisition
7.2.2 Knowledge propagation
7.2.3 Vidya (Knowledge)
7.2.4 Avidya (Ignorance)
7.2.5 Vijñanam (Wisdom)
7.3 Human Resource Management
7.3.1 Employee remuneration
7.3.2 Equal remuneration
7.3.3 Personality management
7.3.3a Annamaya or physical personality
7.3.3b Pranamaya or energetic personality
7.3.3c Manomaya or emotional personality
7.3.3d Vijñanamaya or intellectual personality
7.3.3e Anandamaya or creative personality
7.3.3f Vedic Personality pyramid
7.3.4 Varna and management
7.3.5 Asrama and management
7.3.6 Labor welfare
7.3.7 Succession management
7.4 Relationship marketing
7.5 Trade and commerce
7.6 Social responsibilities
7.6.1 Protection of poor
7.6.2 Absence of profiteering
7.6.3 Protection of interests of workers
7.6.4 Protection of interests of Farmers
7.6.5 Protection of interests of animals
7.6.6 Sponsorship
7.6.7 Rejection of evil
7.7 Time management
7.8 Quality system
7.9 Total Quality Management
7.10 Benchmarking
7.11 Kaizen
7.12 Culture Management
7.12.1 Cultural Practices
7.12.2 Music
7.12.3 Dance
7.12.4 Sports
7.12.5 Recreation
7.12.6 Cultural diversity
7.13 Value System and ethical practices
7.14 Corporate Governance
7.15 Globalization
7.16 Productivity management
7.17 Competition management
7.18 Change management
7.19 Managing oneself
7.20 Summary
7.1 Financial management
1906 v-55-10
Fortune, wealth, treasures and riches are solicited from celestials
यू॒यम॒स्मान्न॑यत॒ वस्यो॒ अच्छा॒ निरं॑ह॒तिभ्यो॑ मरुतो गृणा॒नाः। जु॒षध्वं॑ नो ह॒व्यदा॑तिं यजत्रा व॒यं स्या॑म॒ पत॑यो रयी॒णाम् ॥१०॥
yūyam asmān nayata vasyo acchā nir aṁhatibhyo maruto gṛṇānāḥ | juṣadhvaṁ no havyadātiṁ yajatrā vayaṁ syāma patayo rayīṇām ||
यू॒यम्। अ॒स्मान्। न॒य॒त॒। वस्यः॑। अच्छ॑। निः। अं॒ह॒तिऽभ्यः॑। म॒रु॒तः॒। गृ॒णा॒नाः। जु॒षध्व॑म्। नः॒। ह॒व्यऽदा॑तिम्। य॒ज॒त्राः॒। व॒यम्। स्या॒म॒। पत॑यः। र॒यी॒णाम् ॥१०॥
हे (गृणानाः) स्तुति करते हुए (मरुतः) विद्वान् मनुष्यो ! (यूयम्) आप लोग (वस्यः) अति धन से युक्त (अस्मान्) हम लोगों की रक्षा कीजिये और (अंहतिभ्यः) मारते हैं जिनसे उन अस्त्रों से पृथक् (अच्छा) उत्तम प्रकार (निः, नयत) निरन्तर पहुँचाइये और (नः) हम लोगों की (जुषध्वम्) सेवा करिये। और हे (यजत्राः) मिलनेवाले जनो ! हम लोगों के लिये (हव्यदातिम्) देने योग्य दान को प्राप्त कराइये जिससे (वयम्) हम लोग (रयीणाम्) धनों के (पतयः) पालन करनेवाले (स्याम) होवें ॥१०॥
भावार्थभाषाः -जिज्ञासुजन विद्वानों की प्रार्थना इस प्रकार करें कि आप लोग हम लोगों को दुष्ट आचरण से अलग करके धर्मयुक्त मार्ग को प्राप्त कराइये ॥१०॥ इस सूक्त में मरुत नाम से विद्वान् आदि के गुणों का वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥
People with intellect and wisdom, please help us with ideas to protect our wealth, to become masters of wealth and to become capable of creating right goods that can be traded or given in charity.
It can be interpreted that God says it is good for society, if people with intellect and wisdom, help wealth creators with ideas (prayers or recitations) to protect the wealth, to become masters of wealth and to become capable of creating right goods that can be traded or given in charity.
1913 ii-27-17
Never be lacking in riches.
1921 vii-32-21
The Vedas caution that wealth does not come to the niggardly person.1921
न दु॑ष्टु॒ती मर्त्यो॑ विन्दते॒ वसु॒ न स्रेध॑न्तं र॒यिर्न॑शत्। सु॒शक्ति॒रिन्म॑घव॒न् तुभ्यं॒ माव॑ते दे॒ष्णं यत्पार्ये॑ दि॒वि ॥२१॥
na duḥṣṭutī martyo vindate vasu na sredhantaṁ rayir naśat | suśaktir in maghavan tubhyam māvate deṣṇaṁ yat pārye divi ||
न। दुः॒ऽस्तु॒ती। मर्त्यः॑। वि॒न्द॒ते॒। वसु॑। न। स्रेध॑न्तम्। र॒यिः। न॒श॒त्। सु॒ऽशक्तिः॑। इत्। म॒घ॒ऽव॒न्। तुभ्य॑म्। माऽव॑ते। दे॒ष्णम्। यत्। पार्ये॑। दि॒वि ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
मनुष्य धन की प्राप्ति के लिये क्या-क्या कर्म करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
-हे (मघवन्) परमपूजित धनयुक्त ! जैसे (मर्त्यः) मनुष्य (दुष्टुती) दुष्ट प्रशंसा से (वसु) धन को (न) न (विन्दते) प्राप्त होता है (स्रेधन्तम्) और हिंसा करनेवाले मनुष्य को (रयिः) लक्ष्मी और (सुशक्तिः) सुन्दर शक्ति (इत्) ही (न) नहीं (नशत्) प्राप्त होती है इस प्रकार (मावते) मेरे समान (तुभ्यम्) तुम्हारे लिये (पार्ये) पालना वा पूर्णता करने के योग्य (दिवि) काम में (यत्) जो (देष्णम्) देने योग्य को न प्राप्त होता वह और को भी नहीं प्राप्त होता है ॥२१॥
भावार्थभाषाः -जो अधर्माचरण से युक्त दुष्ट, हिंसक मनुष्य हैं उनको धन, राज्य, और उत्तम सामर्थ्यं नहीं प्राप्त होता है, इससे सबको न्याय के आचरण से ही धन खोजना चाहिये ॥२१॥
1922 x-31-2
Earn wealth through lawful path.
परि॑ चि॒न्मर्तो॒ द्रवि॑णं ममन्यादृ॒तस्य॑ प॒था नम॒सा वि॑वासेत् । उ॒त स्वेन॒ क्रतु॑ना॒ सं व॑देत॒ श्रेयां॑सं॒ दक्षं॒ मन॑सा जगृभ्यात् ॥
pari cin marto draviṇam mamanyād ṛtasya pathā namasā vivāset | uta svena kratunā saṁ vadeta śreyāṁsaṁ dakṣam manasā jagṛbhyāt ||
पद पाठ
परि॑ । चि॒त् । मर्तः॑ । द्रवि॑णम् । म॒म॒न्या॒त् । ऋ॒तस्य॑ । प॒था । न॒म॒सा । वि॒वा॒से॒त् । उ॒त । स्वेन॑ । क्रतु॑ना । सम् । व॒दे॒त॒ । श्रेयां॑सम् । दक्ष॑म् । मन॑सा । ज॒गृ॒भ्या॒त् ॥ १०.३१.२
(मर्तः-द्रविणं परिचित्-ममन्यात्) मनुष्य ज्ञानधन की सब ओर से कामना करे (ऋतस्य पथा मनसा विवासेत्) अमृत अर्थात् मोक्ष के मार्ग से अपने अन्तःकरण अर्थात् श्रद्धा से उसे सेवन करे (उत स्वेन क्रतुना सं वदेत) और अपने प्रज्ञान से-चिन्तन से विचार करे (श्रेयांसं दक्षं मनसा जगृभ्यात्) श्रेष्ठ बल अर्थात् आत्मबल को मनोभाव से पकड़े ॥२॥
भावार्थभाषाः -ज्ञानधन जहाँ से भी मिले ले लेना चाहिये और उसका सबसे अधिक सदुपयोग मोक्षमार्ग में लगाना है। वह मानव का श्रेष्ठ बल है ॥२॥
7.1.1 Profitability management
1923 x-34-13
Wealth has to be attained through genuine labor.
अ॒क्षैर्मा दी॑व्यः कृ॒षिमित्कृ॑षस्व वि॒त्ते र॑मस्व ब॒हु मन्य॑मानः । तत्र॒ गाव॑: कितव॒ तत्र॑ जा॒या तन्मे॒ वि च॑ष्टे सवि॒तायम॒र्यः ॥
akṣair mā dīvyaḥ kṛṣim it kṛṣasva vitte ramasva bahu manyamānaḥ | tatra gāvaḥ kitava tatra jāyā tan me vi caṣṭe savitāyam aryaḥ ||
अ॒क्षैः । मा । दी॒व्य॒ह् । कृ॒षिम् । इत् । कृ॒ष॒स्व॒ । वि॒त्ते । र॒म॒स्व॒ । ब॒हु । मन्य॑मानः । तत्त्र॑ । गावः॑ । कि॒त॒व॒ । तत्र॑ । जा॒या । तत् । मे॒ । वि । च॒ष्टे॒ । स॒वि॒ता । अ॒यम् । अ॒र्यः ॥ १०.३४.१३
(कितव) हे द्यूतव्यसनी ! (अक्षैः-मा दीव्यः) जुए के पाशों से मत खेल (कृषिम्-इत्-कृषस्व) कृषि को जोत-खेती कर-अन्न उपजा (वित्ते रमस्व) खेती से प्राप्त अन्न-धन-भोग से आनन्द ले (बहु मन्यमानः) अपने को धन्य मानता हुआ प्रसन्न रह, क्योंकि (तत्र गावः) उस कार्य में गौएँ सुरक्षित हैं-और रहेंगी (तत्र जाया) उसमें पत्नी सुरक्षित प्रसन्न व अनुकूल रहेगी (अयम्-अर्यः सविता तत्-मे वि चष्टे) यह उत्पादक जगदीश परमात्मा मुझ उपासक के लिये कहता है कि लोगों को ऐसा उपदेश दो ॥१३॥
जुए जैसे विषम व्यवहार एवं पाप की कमाई से बचकर स्वश्रम से उपार्जित कृषि से प्राप्त अन्न और भोग श्रेष्ठ हैं। इससे पारिवारिक व्यवस्था और पशुओं का लाभ भी मिलता है, परमात्मा भी अनुकूल सुखदायक बनता है ॥१३॥
God tells me (his disciples or upasaks) to go and tell people not to try to earn through game of dice. Food is to be produced in the field with own effort. Such effort helps cows to live, wife to live and she will be pleased with it.
7.1.2 Capital structure Planning
1929 x-127-7
One shall be redeemed from debt.
उप॑ मा॒ पेपि॑श॒त्तम॑: कृ॒ष्णं व्य॑क्तमस्थित । उष॑ ऋ॒णेव॑ यातय ॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
upa mā pepiśat tamaḥ kṛṣṇaṁ vyaktam asthita | uṣa ṛṇeva yātaya ||
पद पाठ
उप॑ । मा॒ । पेपि॑शत् । तमः॑ । कृ॒ष्णम् । विऽअ॑क्तम् । अ॒स्थि॒त॒ । उषः॑ । ऋ॒णाऽइ॑व । या॒त॒य॒ ॥ १०.१२७.७
(उषः) हे उषो वेले ! (कृष्णं तमः) घने अन्धकार को अपना रूप देती हुई (पेपिशत्) अत्यन्त चूर्ण कर दे (व्यक्तं मा-उप अस्थित) मुझे पूर्णरूप से उपस्थित होती है (ऋणा-इव यातय) ऋणों की भाँति दूर कर-उतार, रात्रि के अनन्तर उषा आया करती है, जो रात्रि के अन्धकार को मिटाती है ॥७॥
प्रभातवेला उषा जब आती है, रात्रि के अन्धकार को चूर्ण करती हुई आती है तथा हमारे मानस अन्धकार से ऋण की भाँति विमुक्त कराती है, ज्ञान जागृति देती है ॥७॥
1929a vi-61-1
Cancellation of debt is mentioned in the Vedas.
1930
The concept of equity share capital is indicated in the Vedas in the form of equal partnership through commonality.
1931
The Vedas mention about dealers of wealth.
7.1.3 Wealth
7.1.3a Fair mode for wealth acquisition
1933 6-19-10
Wealth has to be won by deeds of glory.
नृ॒वत्त॑ इन्द्र॒ नृत॑माभिरू॒ती वं॑सी॒महि॑ वा॒मं श्रोम॑तेभिः। ईक्षे॒ हि वस्व॑ उ॒भय॑स्य राज॒न्धा रत्नं॒ महि॑ स्थू॒रं बृ॒हन्त॑म् ॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
nṛvat ta indra nṛtamābhir ūtī vaṁsīmahi vāmaṁ śromatebhiḥ | īkṣe hi vasva ubhayasya rājan dhā ratnam mahi sthūram bṛhantam ||
पद पाठ
नृ॒ऽवत्। ते॒। इ॒न्द्र॒। नृऽत॑माभिः। ऊ॒ती। वं॒सी॒महि॑। वा॒मम्। श्रोम॑तेभिः। ईक्षे॑। हि। वस्वः॑। उ॒भय॑स्य। रा॒ज॒न्। धाः। रत्न॑म्। महि॑। स्थू॒रम्। बृ॒हन्त॑म् ॥
हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य के देनेवाले (राजन्) विद्या और विनय से प्रकाशमान ! जैसे हम लोग (ते) आपके (नृतमाभिः) अति उत्तम मनुष्य विद्यमान जिनमें उन (ऊती) रक्षण आदिकों से (नृवत्) मनुष्यों के तुल्य (वामम्) प्रशंसा करने योग्य कर्म का (वंसीमहि) विभाग करें और (श्रोमतेभिः) सुनाने योग्य वचनों से (उभयस्य) दोनों राजा और प्रजा में वर्त्तमान (वस्वः) धन का मैं (ईक्षे) दर्शन करता हूँ, वैसे आप (बृहन्तम्) बड़े (महि) आदर करने योग्य (स्थूरम्) स्थिर (रत्नम्) सुन्दर धन को (हि) ही (धाः) धारण करिये ॥१०॥
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। राजजनों तथा प्रजाजनों और राजा को चाहिये कि प्रशस्तों से प्रशंसित विद्या और बहुत धन की निरन्तर वृद्धि करें ॥१०॥
1934 10-31-2
A man who is desirous of wealth shall strive to win it by lawful path.
परि॑ चि॒न्मर्तो॒ द्रवि॑णं ममन्यादृ॒तस्य॑ प॒था नम॒सा वि॑वासेत् । उ॒त स्वेन॒ क्रतु॑ना॒ सं व॑देत॒ श्रेयां॑सं॒ दक्षं॒ मन॑सा जगृभ्यात् ॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
pari cin marto draviṇam mamanyād ṛtasya pathā namasā vivāset | uta svena kratunā saṁ vadeta śreyāṁsaṁ dakṣam manasā jagṛbhyāt ||
पद पाठ
परि॑ । चि॒त् । मर्तः॑ । द्रवि॑णम् । म॒म॒न्या॒त् । ऋ॒तस्य॑ । प॒था । न॒म॒सा । वि॒वा॒से॒त् । उ॒त । स्वेन॑ । क्रतु॑ना । सम् । व॒दे॒त॒ । श्रेयां॑सम् । दक्ष॑म् । मन॑सा । ज॒गृ॒भ्या॒त् ॥ १०.३१.२
(मर्तः-द्रविणं परिचित्-ममन्यात्) मनुष्य ज्ञानधन की सब ओर से कामना करे (ऋतस्य पथा मनसा विवासेत्) अमृत अर्थात् मोक्ष के मार्ग से अपने अन्तःकरण अर्थात् श्रद्धा से उसे सेवन करे (उत स्वेन क्रतुना सं वदेत) और अपने प्रज्ञान से-चिन्तन से विचार करे (श्रेयांसं दक्षं मनसा जगृभ्यात्) श्रेष्ठ बल अर्थात् आत्मबल को मनोभाव से पकड़े ॥२॥
ज्ञानधन जहाँ से भी मिले ले लेना चाहिये और उसका सबसे अधिक सदुपयोग मोक्षमार्ग में लगाना है। वह मानव का श्रेष्ठ बल है ॥२॥
1935 4-50-9
One who helps others wins wealth.
अप्र॑तीतो जयति॒ सं धना॑नि॒ प्रति॑जन्यान्यु॒त या सज॑न्या। अ॒व॒स्यवे॒ यो वरि॑वः कृ॒णोति॑ ब्र॒ह्मणे॒ राजा॒ तम॑वन्ति दे॒वाः ॥९॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
apratīto jayati saṁ dhanāni pratijanyāny uta yā sajanyā | avasyave yo varivaḥ kṛṇoti brahmaṇe rājā tam avanti devāḥ ||
पद पाठ
अप्र॑तिऽइतः। ज॒य॒ति॒। सम्। धना॑नि। प्रति॑ऽजन्यानि। उ॒त। या। सऽज॑न्या। अ॒व॒स्यवे॑। यः। वरि॑वः। कृ॒णोति॑। ब्र॒ह्मणे॑। राजा॑। तम्। अ॒व॒न्ति॒। दे॒वाः ॥९॥
हे मनुष्यो ! (यः) जो (अप्रतीतः) शत्रुओं से नहीं पराजित किया गया (राजा) राजा (अवस्यवे) रक्षा की इच्छा करते हुए (ब्रह्मणे) परमात्मा के लिये (वरिवः) सेवन को (कृणोति) करता है (तम्) उसकी (देवाः) विद्वान् जन (अवन्ति) रक्षा करते हैं और (या) जो (सजन्या) तुल्य उत्पन्न हुए पदार्थों के साथ वर्त्तमान (उत) भी (प्रतिजन्यानि) मनुष्य-मनुष्य के प्रति वर्त्तमान (धनानि) धन हैं उनको सहज स्वभाव से (सम्, जयति) अच्छे प्रकार जीतता है ॥९॥
हे मनुष्यो ! जो राजा परमात्मा ही की उपासना करता और यथार्थवक्ता विद्वानों की सेवा करता है, वही नहीं नाश होनेवाले राज्य और धन को प्राप्त होकर सदा ही विजयी होता है ॥९॥
1936 1-125-1
One who gets up early morning gets treasure.1936
प्रा॒ता रत्नं॑ प्रात॒रित्वा॑ दधाति॒ तं चि॑कि॒त्वान्प्र॑ति॒गृह्या॒ नि ध॑त्ते। तेन॑ प्र॒जां व॒र्धय॑मान॒ आयू॑ रा॒यस्पोषे॑ण सचते सु॒वीर॑: ॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
prātā ratnam prātaritvā dadhāti taṁ cikitvān pratigṛhyā ni dhatte | tena prajāṁ vardhayamāna āyū rāyas poṣeṇa sacate suvīraḥ ||
पद पाठ
प्रा॒तरिति॑। रत्न॑म्। प्रा॒तः॒ऽइत्वा॑। द॒धा॒ति॒। तम्। चि॒कि॒त्वान्। प्र॒ति॒ऽगृह्य॑। नि। ध॒त्ते॒। तेन॑। प्र॒जाम्। व॒र्धय॑मानः। आयुः॑। रा॒यः। पोषे॑ण। स॒च॒ते॒। सु॒ऽवीरः॑ ॥ १.१२५.१
जो (चिकित्वान्) विशेष ज्ञानवान् (प्रातरित्वा) प्रातःकाल में जागनेवाला (सुवीरः) सुन्दर वीर मनुष्य (प्रातः रत्नम्) प्रभात समय में रमण करने योग्य आनन्दमय पदार्थ को (दधाति) धारण करता और (प्रतिगृह्य) दे, लेकर फिर (तम्) उसको (नि, धत्ते) नित्य धारण वा (तेन) उस (रायस्पोषेण) धन की पुष्टि से (प्रजाम्) पुत्र-पौत्र आदि सन्तान और (आयुः) आयुर्दा को (वर्द्धयमानः) विद्या और उत्तम शिक्षा से बढ़ाता हुआ (सचते) उसका सम्बन्ध करता है, वह निरन्तर सुखी होता है ॥ १ ॥
जो आलस्य को छोड़ धर्म सम्बन्धी व्यवहार से धन को पा उसकी रक्षा उसका स्वयं भोग कर दूसरों को भोग करा और दे-ले कर निरन्तर उत्तम यत्न करे, वह सब सुखों को प्राप्त होवे ॥ १ ॥
7.1.3b Wealth maximization
1944 2-11-13
One shall long for riches.
स्याम॒ ते त॑ इन्द्र॒ ये त॑ ऊ॒ती अ॑व॒स्यव॒ ऊर्जं॑ व॒र्धय॑न्तः। शु॒ष्मिन्त॑मं॒ यं चा॒कना॑म देवा॒स्मे र॒यिं रा॑सि वी॒रव॑न्तम्॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
syāma te ta indra ye ta ūtī avasyava ūrjaṁ vardhayantaḥ | śuṣmintamaṁ yaṁ cākanāma devāsme rayiṁ rāsi vīravantam ||
पद पाठ
स्याम॑। ते। ते॒। इ॒न्द्र॒। ये। ते॒। ऊ॒ती। अ॒व॒स्यवः॑। ऊर्ज॑म्। व॒र्धय॑न्तः। शु॒ष्मिन्ऽत॑मम्। यम्। चा॒कना॑म। दे॒व॒। अ॒स्मे इति॑। र॒यिम्। रा॒सि॒। वी॒रऽव॑न्तम्॥
हे (देव) मनोहर (इन्द्र) ऐश्वर्य के देनेवाले ! (ये) जो (अवस्यवः) अपनी रक्षा चाहते और (ते) आपकी (ऊती) रक्षा आदि क्रिया से (ऊर्जम्) पराक्रम को (वर्द्धयन्तः) बढ़ाते हुए आपकी रक्षा करते (ते) वे अतुल सुख को प्राप्त होते हैं जिन (ते) आपके सम्बन्ध में हम लोग (यम्) जिस (शुष्मिन्तमम्) अति बलवान् (वीरवन्तम्) वीरों के प्रसिद्ध करानेवाले (रयिम्) धन को (चाकनाम) चाहें आप (अस्मे) हम लोगों के लिये इसको (रासि) देते हो उसको प्राप्त हो हम लोग सुखी (स्याम) हों ॥१३॥
जो भी मनुष्य परस्पर की वृद्धि करते हैं, वे सब ओर से बढ़ते हैं, किसी को अच्छी कामना नहीं छोड़नी चाहिये ॥१३॥
1946 5-55-10
One shall be a master of abundant riches.
यू॒यम॒स्मान्न॑यत॒ वस्यो॒ अच्छा॒ निरं॑ह॒तिभ्यो॑ मरुतो गृणा॒नाः। जु॒षध्वं॑ नो ह॒व्यदा॑तिं यजत्रा व॒यं स्या॑म॒ पत॑यो रयी॒णाम् ॥१०॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
yūyam asmān nayata vasyo acchā nir aṁhatibhyo maruto gṛṇānāḥ | juṣadhvaṁ no havyadātiṁ yajatrā vayaṁ syāma patayo rayīṇām ||
पद पाठ
यू॒यम्। अ॒स्मान्। न॒य॒त॒। वस्यः॑। अच्छ॑। निः। अं॒ह॒तिऽभ्यः॑। म॒रु॒तः॒। गृ॒णा॒नाः। जु॒षध्व॑म्। नः॒। ह॒व्यऽदा॑तिम्। य॒ज॒त्राः॒। व॒यम्। स्या॒म॒। पत॑यः। र॒यी॒णाम् ॥१०॥
हे (गृणानाः) स्तुति करते हुए (मरुतः) विद्वान् मनुष्यो ! (यूयम्) आप लोग (वस्यः) अति धन से युक्त (अस्मान्) हम लोगों की रक्षा कीजिये और (अंहतिभ्यः) मारते हैं जिनसे उन अस्त्रों से पृथक् (अच्छा) उत्तम प्रकार (निः, नयत) निरन्तर पहुँचाइये और (नः) हम लोगों की (जुषध्वम्) सेवा करिये। और हे (यजत्राः) मिलनेवाले जनो ! हम लोगों के लिये (हव्यदातिम्) देने योग्य दान को प्राप्त कराइये जिससे (वयम्) हम लोग (रयीणाम्) धनों के (पतयः) पालन करनेवाले (स्याम) होवें ॥१०॥
जिज्ञासुजन विद्वानों की प्रार्थना इस प्रकार करें कि आप लोग हम लोगों को दुष्ट आचरण से अलग करके धर्मयुक्त मार्ग को प्राप्त कराइये ॥१०॥
7.1.3c Multi-Sources of Wealth
1948 9-45-3
The doors of wealth shall be unbarred.
उ॒त त्वाम॑रु॒णं व॒यं गोभि॑रञ्ज्मो॒ मदा॑य॒ कम् । वि नो॑ रा॒ये दुरो॑ वृधि ॥
uta tvām aruṇaṁ vayaṁ gobhir añjmo madāya kam | vi no rāye duro vṛdhi ||
उ॒त । त्वाम् । अ॒रु॒णम् । व॒यम् । गोभिः॑ । अ॒ञ्ज्मः॒ । मदा॑य । कम् । वि । नः॒ । रा॒ये । दुरः॑ । वृ॒धि॒ ॥ ९.४५.३
हे परमात्मन् ! (अरुणम् उत त्वाम्) गतिशील आपको (मदाय) आह्लादप्राप्ति के लिये (गोभिः अञ्ज्मः) इन्द्रियों द्वारा ज्ञान का विषय करते हैं (नः रायम्) आप हमारे ऐश्वर्य के लिये (दुरः विवृधि) पापों को नष्ट करिये तथा (कम्) सुख प्रदान करिये ॥३॥
जो लोग अपनी इन्द्रियों का संयम करते हैं, वे ही उस परमात्मा के शुद्ध स्वरूप को अनुभव कर सकते हैं, अन्य नहीं
1949 5-54-13
Wealth in thousands should dwell and should never disappear.
यु॒ष्माद॑त्तस्य मरुतो विचेतसो रा॒यः स्या॑म र॒थ्यो॒३॒॑ वय॑स्वतः। न यो युच्छ॑ति ति॒ष्यो॒३॒॑ यथा॑ दि॒वो॒३॒॑स्मे रा॑रन्त मरुतः सह॒स्रिण॑म् ॥१३॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
yuṣmādattasya maruto vicetaso rāyaḥ syāma rathyo vayasvataḥ | na yo yucchati tiṣyo yathā divo sme rāranta marutaḥ sahasriṇam ||
पद पाठ
यु॒ष्माऽद॑त्तस्य। म॒रु॒तः॒। वि॒ऽचे॒त॒सः॒। रा॒यः। स्या॒म॒। र॒थ्यः॑। वय॑स्वतः। न। यः। युच्छ॑ति। ति॒ष्यः॑। यथा॑। दि॒वः। अ॒स्मे इति॑। र॒र॒न्त॒। म॒रु॒तः॒। स॒ह॒स्रिण॑म् ॥१३॥
हे (विचेतसः) अनेक प्रकार का संज्ञान जिनका वे (रथ्यः) बहुत रथ आदि से युक्त (मरुतः) प्राणों के सदृश प्रियजनो ! हम लोग (युष्मादत्तस्य) आप लोगों से दिये गये (वयस्वतः) प्रशंसित जीवन जिसका उस (रायः) धन के स्वामी (स्याम) होवें और (यः) जो (अस्मे) हम लोगों के लिये वा हम लोगों में (न) नहीं (युच्छति) प्रमाद करता और (यथा) जैसे (दिवः) प्रकाश के मध्य में (तिष्यः) सूर्य्य वा पुष्य नक्षत्र है, वैसे प्रकाशित होवे और हे (मरुतः) जनो ! आप लोग (सहस्रिणम्) असंख्य वस्तु है विद्यमान जिसके उसको (रारन्त) रमण करते हैं ॥१३॥
मनुष्यों को चाहिये कि सदा धनाढ्यपन का खोज करें और प्रमाद न करें ॥१३॥
1950 5-55-10
People are to be masters of plentiful riches.
यू॒यम॒स्मान्न॑यत॒ वस्यो॒ अच्छा॒ निरं॑ह॒तिभ्यो॑ मरुतो गृणा॒नाः। जु॒षध्वं॑ नो ह॒व्यदा॑तिं यजत्रा व॒यं स्या॑म॒ पत॑यो रयी॒णाम् ॥१०॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
yūyam asmān nayata vasyo acchā nir aṁhatibhyo maruto gṛṇānāḥ | juṣadhvaṁ no havyadātiṁ yajatrā vayaṁ syāma patayo rayīṇām ||
पद पाठ
यू॒यम्। अ॒स्मान्। न॒य॒त॒। वस्यः॑। अच्छ॑। निः। अं॒ह॒तिऽभ्यः॑। म॒रु॒तः॒। गृ॒णा॒नाः। जु॒षध्व॑म्। नः॒। ह॒व्यऽदा॑तिम्। य॒ज॒त्राः॒। व॒यम्। स्या॒म॒। पत॑यः। र॒यी॒णाम् ॥१०॥
हे (गृणानाः) स्तुति करते हुए (मरुतः) विद्वान् मनुष्यो ! (यूयम्) आप लोग (वस्यः) अति धन से युक्त (अस्मान्) हम लोगों की रक्षा कीजिये और (अंहतिभ्यः) मारते हैं जिनसे उन अस्त्रों से पृथक् (अच्छा) उत्तम प्रकार (निः, नयत) निरन्तर पहुँचाइये और (नः) हम लोगों की (जुषध्वम्) सेवा करिये। और हे (यजत्राः) मिलनेवाले जनो ! हम लोगों के लिये (हव्यदातिम्) देने योग्य दान को प्राप्त कराइये जिससे (वयम्) हम लोग (रयीणाम्) धनों के (पतयः) पालन करनेवाले (स्याम) होवें ॥१०॥
जिज्ञासुजन विद्वानों की प्रार्थना इस प्रकार करें कि आप लोग हम लोगों को दुष्ट आचरण से अलग करके धर्मयुक्त मार्ग को प्राप्त कराइये ॥१०॥
1951 7-72-5
Wealth has to be brought from all sides.
आ प॒श्चाता॑न्नास॒त्या पु॒रस्ता॒दाश्वि॑ना यातमध॒रादुद॑क्तात् । आ वि॒श्वत॒: पाञ्च॑जन्येन रा॒या यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभि॒: सदा॑ नः ॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
ā paścātān nāsatyā purastād āśvinā yātam adharād udaktāt | ā viśvataḥ pāñcajanyena rāyā yūyam pāta svastibhiḥ sadā naḥ ||
पद पाठ
आ । प॒श्चाता॑त् । ना॒स॒त्या॒ । आ । पु॒रस्ता॑त् । आ । अ॒श्वि॒ना॒ । या॒त॒म् । अ॒ध॒रात् । उद॑क्तात् । आ । वि॒श्वतः॑ । पाञ्च॑ऽजन्येन । रा॒या । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥ ७.७२.५
(नासत्या) हे सत्यवादी विद्वानों ! तुम लोग (आ पश्चातात्) भले प्रकार पश्चिम दिशा से (आ पुरस्तात्) पूर्व दिशा से (अधरात्) नीचे की ओर से (उदक्तात्) ऊपर की ओर से (आ विश्वतः) सब ओर से (पाञ्चजन्येन) पाँचों प्रकार के मनुष्यों का (राया) ऐश्वर्य्य बढ़ाओ और (अश्विना) हे अध्यापक तथा उपदेशको ! आप लोग पाँचों प्रकार के मनुष्यों को (आ) भले प्रकार (यातं) प्राप्त होकर सब यह प्रार्थना करो कि हे परमात्मन् ! (यूयं) आप (सदा) सदा (स्वस्तिभिः) मङ्गलरूप वाणियों द्वारा (नः) हमारे ऐश्वर्य्य की (पात) रक्षा करें ॥५॥
मन्त्र में जो “पञ्चजनाः” पद आया है, वह वैदिक सिद्धान्तानुसार पाँच प्रकार के मनुष्यों का वर्णन करता है अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और पाँचवें दस्यु, जिनको ‘निषाद’ भी कहते हैं। वास्तव में वर्ण चार ही हैं, परन्तु मनुष्यमात्र का कल्याण अभिप्रेत होने के कारण पाँचवें दस्युओं को भी सम्मिलित करके परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे सत्यवादी विद्वानों ! आप लोग सब ओर से मनुष्यमात्र को प्राप्त होकर वैदिक धर्म का उपदेश करो, जिससे सब प्रजाजन सुकर्मों में प्रवृत्त होकर ऐश्वर्य्यशाली हों ॥ तात्पर्य्य यह है कि जो पुरुष सदा विद्वानों की सङ्गति में रहते और जिनको विद्वज्जन सब ओर से आकर प्राप्त होते हैं, वे पवित्र भावोंवाले होकर सदा ऐश्वर्य्यसम्पन्न हुए सङ्गति को प्राप्त होते हैं ॥ यहाँ “पञ्चजनाः” शब्द से यह भी है कि जिनमें गुण कर्म स्वभाव से कोई वर्ण स्थिर नहीं किया जा सकता था, उनको दस्यु वा निषाद कहते थे, क्योंकि वेद में चारों वर्णों का वर्णन स्पष्ट है। इससे सिद्ध है कि आर्यों में वर्णव्यवस्था वैदिक समय से गुणकर्मानुसार मानी जाती थी, जन्म से नहीं ॥ जिन लोगों का यह कथन है कि सनातन समय में वर्णव्यवस्था जन्म पर निर्भर थी, यह सर्वथा मिथ्या है, क्योंकि “ब्रह्मा देवानां पदवीं” ॥ ऋ० मं० ९।९६ ॥ और “तमेव ऋषिं तमु ब्रह्माणमाहुः” ॥ ऋ० म० १०।१०७ ॥ इत्यादि मन्त्रों में स्पष्ट है कि ब्रह्मा, ऋषि वा ब्राह्मणत्वादि धर्म वेद में सब गुण-कर्मानुसार माने गये हैं, जन्म से नहीं ॥
7.1.3d Enjoyer of Wealth
7.1.3e Social Distribution of Wealth
1956 10-117-6
One shall not be selfish and consume all by himself.
1958
One shall not be selfish and consume all by himself.
मोघ॒मन्नं॑ विन्दते॒ अप्र॑चेताः स॒त्यं ब्र॑वीमि व॒ध इत्स तस्य॑ । नार्य॒मणं॒ पुष्य॑ति॒ नो सखा॑यं॒ केव॑लाघो भवति केवला॒दी ॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
mogham annaṁ vindate apracetāḥ satyam bravīmi vadha it sa tasya | nāryamaṇam puṣyati no sakhāyaṁ kevalāgho bhavati kevalādī ||
पद पाठ
मोघ॑म् । अन्न॑म् । वि॒न्द॒ते॒ । अप्र॑ऽचेताः । स॒त्यम् । ब्र॒वी॒मि॒ । व॒धः । इत् । सः । तस्य॑ । न । अ॒र्य॒मण॑म् । पुष्य॑ति । नो इति॑ । सखा॑यम् । केव॑लऽअघः । भ॒व॒ति॒ । के॒व॒ल॒ऽआ॒दी ॥ १०.११७.६
(अप्रचेताः) अप्रकृष्ट बुद्धिवाला-बेसमझ मनुष्य (मोघम्) व्यर्थ (अन्नं विन्दते) अन्नादि धन को प्राप्त करते हैं (सत्यं ब्रवीमि) मैं सत्य कहता हूँ (तस्य) उसका (सः) वह धन वैभव (वधः-इत्) वधक है-घातक ही है (अर्यमणम्) उस अन्नादि से ज्ञानदाता विद्वान् को (न पुष्यति) नहीं पालता है (न-उ सखायम्) और न ही समानधर्मी समानवंशी सम्बन्धी को पालता है-घोषित करता है, वह ऐसा (केवलादी) अकेला खानेवाला (केवलाघः) केवल पापी होता है ॥६॥
जो मनुष्य अन्न धन सम्पत्ति का स्वामी बनकर उससे किसी ज्ञान देनेवाले विद्वान् का पोषण नहीं करता न किसी वंशीय सम्बन्धी का पोषण करता है, उसका अन्नधन सम्पत्ति पाना व्यर्थ है-घातक है, वह केवल अकेले खाकर पापी बनकर संसार से चला जाता है ॥६॥
1960 10-117-5
The rich shall satisfy the poor.
पृ॒णी॒यादिन्नाध॑मानाय॒ तव्या॒न्द्राघी॑यांस॒मनु॑ पश्येत॒ पन्था॑म् । ओ हि वर्त॑न्ते॒ रथ्ये॑व च॒क्रान्यम॑न्य॒मुप॑ तिष्ठन्त॒ राय॑: ॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
pṛṇīyād in nādhamānāya tavyān drāghīyāṁsam anu paśyeta panthām | o hi vartante rathyeva cakrānyam-anyam upa tiṣṭhanta rāyaḥ ||
पद पाठ
पृ॒णी॒यात् । इत् । नाध॑मानाय । तव्या॑न् । द्राघी॑यांसम् । अनु॑ । प॒श्ये॒त॒ । पन्था॑म् । ओ इति॑ । हि । व॒र्त॒न्ते॒ । रथ्या॑ऽइव । च॒क्रा । अ॒न्यम्ऽअ॑न्यम् । उप॑ । ति॒ष्ठ॒न्त॒ । रायः॑ ॥ १०.११७.५
(तव्यान्) धनसमृद्ध जन (नाधमानाय) अधिकार माँगनेवाले के लिये उसे (पृणीयात्) भोजनादि से तृप्त करे (द्राघीयांसम्) अतिदीर्घ लम्बे उदार (पन्थाम्) मार्ग को (अनु पश्येत) देखे-समझे (रायः) सम्पत्तियाँ (रथ्या चक्रा-इव) रथ के चक्रों पहियों की भाँति (आ वर्तन्ते-उ हि) आवर्तन किया करती हैं, भिन्न-भिन्न स्थानों में घूमा करती हैं (अन्यम्-अन्यम्-उप तिष्ठन्त) भिन्न-भिन्न स्थान को आश्रित करती हैं ॥५॥
धनसम्पन्न मनुष्य अपने अन्न धन सम्पत्ति से अधिकार माँगनेवाले को तृप्त करे, इस प्रकार उदारता के मार्ग को अनुभव करे, क्योंकि धन सम्पत्तियाँ सदा एक के पास नहीं रहती हैं, वे तो गाड़ी के पहियों की भाँति घूमा करती हैं, आती-जाती रहती हैं ॥५॥
7.1.3f Conservation of Wealth
1961 6-71-6
One shall produce fair wealth for today and tomorrow.
वा॒मम॒द्य स॑वितर्वा॒ममु॒ श्वो दि॒वेदि॑वे वा॒मम॒स्मभ्यं॑ सावीः। वा॒मस्य॒ हि क्षय॑स्य देव॒ भूरे॑र॒या धि॒या वा॑म॒भाजः॑ स्याम ॥६॥
vāmam adya savitar vāmam u śvo dive-dive vāmam asmabhyaṁ sāvīḥ | vāmasya hi kṣayasya deva bhūrer ayā dhiyā vāmabhājaḥ syāma ||
वा॒मम्। अ॒द्य। स॒वि॒तः॒। वा॒मम्। ऊँ॒ इति॑। श्वः। दि॒वेऽदि॑वे। वा॒मम्। अ॒स्मभ्य॑म्। सा॒वीः॒। वा॒मस्य॑। हि। क्षय॑स्य। दे॒व॒। भूरेः॑। अ॒या। धि॒या। वा॒म॒ऽभाजः॑। स्या॒म॒ ॥६॥
हे (सवितः) ऐश्वर्य्य के देनेवाले (देव) दिव्यगुणयुक्त राजन् ! जैसे (हि) जिस कारण से आप (अद्य) अब (वामम्) प्रशंसा करने योग्य सुख (उ) और (श्वः) अगले दिन (वामम्) प्रशंसा करने योग्य सुख तथा (दिवेदिवे) प्रतिदिन (वामम्) अति उत्तम सुख (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (सावीः) उत्पन्न करो उससे (अया) इस (धिया) प्रज्ञा वा कर्म से (भूरेः) बहुत प्रकार के (वामस्य) प्रशंसित (क्षयस्य) घर के (वामभाजः) वामभाज अर्थात् प्रशंसित सुख भोगनेवाले हम लोग (स्याम) हों ॥६॥
हे राजन् ! जिससे आप हम प्रजाजनों के लिये प्रशंसनीय सुख को उत्पन्न करते और रक्षा का विधान करते हो, वैसे हम लोग सुख से धन, घर और प्रशंसित कामों के सेवनेवाले होकर आपकी आज्ञा में नित्य वर्तें ॥६॥
7.1.3g Poverty
1962 10-76-4
Poverty should be banished.
अप॑ हत र॒क्षसो॑ भङ्गु॒राव॑त स्कभा॒यत॒ निॠ॑तिं॒ सेध॒ताम॑तिम् । आ नो॑ र॒यिं सर्व॑वीरं सुनोतन देवा॒व्यं॑ भरत॒ श्लोक॑मद्रयः ॥
apa hata rakṣaso bhaṅgurāvata skabhāyata nirṛtiṁ sedhatāmatim | ā no rayiṁ sarvavīraṁ sunotana devāvyam bharata ślokam adrayaḥ ||
पद पाठ
अप॑ । ह॒त॒ । र॒क्षसः॑ । भ॒ङ्गु॒रऽव॑तः । स्क॒भा॒यत॑ । निःऽऋ॑तिम् । सेध॑त । अम॑तिम् । आ । नः॒ । र॒यिम् । सर्व॑ऽवीरम् । सु॒नो॒त॒न॒ । दे॒व॒ऽअ॒व्य॑म् । भ॒र॒त॒ । श्लोक॑म् । अ॒द्र॒यः॒ ॥ १०.७६.४
(अद्रयः) हे मन्त्रोपदेश करनेवाले विद्वानों ! तुम (भङ्गुरावतः) प्रहारक प्रवृत्तिवाले (रक्षसः) दुष्ट विचारों को (अपहत) नष्ट करो (निर्ऋतिं स्कभायत) रमणतारहित या अरमणीय प्रवृत्ति को नियन्त्रित करो-रोको (अमतिम्-अपसेधत) अज्ञता को दूर करो (नः) हमारे लिए (सर्ववीरं रयिम्) समस्त प्राणों से युक्त पोषण को (आसुनोतन) सम्पादित करो (देवाव्यं श्लोकं-भरत) परमात्मदेव जिससे प्राप्त हो, ऐसे वचन को हमारे अन्दर धारण करो ॥४॥
विद्वान् जन जनता को ऐसा उपदेश करें, जिससे कि उनके अन्दर से दुष्ट विचार, अस्थिरता, अज्ञान दूर होकर वे स्वास्थ्य और परमात्मा की प्राप्ति कर सकें ॥४॥
7.2 Knowledge Management
7.2.1 Knowledge Acquisition
1971 10-130-5
By knowledge men ascend as Rsis.
अप॑ हत र॒क्षसो॑ भङ्गु॒राव॑त स्कभा॒यत॒ निॠ॑तिं॒ सेध॒ताम॑तिम् । आ नो॑ र॒यिं सर्व॑वीरं सुनोतन देवा॒व्यं॑ भरत॒ श्लोक॑मद्रयः ॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
apa hata rakṣaso bhaṅgurāvata skabhāyata nirṛtiṁ sedhatāmatim | ā no rayiṁ sarvavīraṁ sunotana devāvyam bharata ślokam adrayaḥ ||
पद पाठ
अप॑ । ह॒त॒ । र॒क्षसः॑ । भ॒ङ्गु॒रऽव॑तः । स्क॒भा॒यत॑ । निःऽऋ॑तिम् । सेध॑त । अम॑तिम् । आ । नः॒ । र॒यिम् । सर्व॑ऽवीरम् । सु॒नो॒त॒न॒ । दे॒व॒ऽअ॒व्य॑म् । भ॒र॒त॒ । श्लोक॑म् । अ॒द्र॒यः॒ ॥ १०.७६.४
(अद्रयः) हे मन्त्रोपदेश करनेवाले विद्वानों ! तुम (भङ्गुरावतः) प्रहारक प्रवृत्तिवाले (रक्षसः) दुष्ट विचारों को (अपहत) नष्ट करो (निर्ऋतिं स्कभायत) रमणतारहित या अरमणीय प्रवृत्ति को नियन्त्रित करो-रोको (अमतिम्-अपसेधत) अज्ञता को दूर करो (नः) हमारे लिए (सर्ववीरं रयिम्) समस्त प्राणों से युक्त पोषण को (आसुनोतन) सम्पादित करो (देवाव्यं श्लोकं-भरत) परमात्मदेव जिससे प्राप्त हो, ऐसे वचन को हमारे अन्दर धारण करो ॥४॥
विद्वान् जन जनता को ऐसा उपदेश करें, जिससे कि उनके अन्दर से दुष्ट विचार, अस्थिरता, अज्ञान दूर होकर वे स्वास्थ्य और परमात्मा की प्राप्ति कर सकें ॥४॥
1972 10-139-5
One should know both truth and falsehood properly.
वि॒श्वाव॑सुर॒भि तन्नो॑ गृणातु दि॒व्यो ग॑न्ध॒र्वो रज॑सो वि॒मान॑: । यद्वा॑ घा स॒त्यमु॒त यन्न वि॒द्म धियो॑ हिन्वा॒नो धिय॒ इन्नो॑ अव्याः ॥
viśvāvasur abhi tan no gṛṇātu divyo gandharvo rajaso vimānaḥ | yad vā ghā satyam uta yan na vidma dhiyo hinvāno dhiya in no avyāḥ ||
वि॒श्वऽव॑सुः । अ॒भि । तत् । नः॒ । गृ॒णा॒तु॒ । दि॒व्यः । ग॒न्ध॒र्वः । रज॑सः । वि॒ऽमानः । यत् । वा॒ । घ॒ । स॒त्यम् । उ॒त । यत् । न । वि॒द्म । धियः॑ । हि॒न्वा॒नः । धियः॑ । इत् । नः॒ । अ॒व्याः॒ ॥ १०.१३९.५
विश्वावसुः) विश्व को बसानेवाला या विश्व में बसनेवाला (दिव्यः) मोक्षधाम का अधिपति (गन्धर्वः) वेदवाणी का धारक (रजसः-विमानः) लोकमात्र का निर्माणकर्ता परमात्मा (नः) हमें (तत्) उसका (अभि गृणातु) उपदेश करे (यत्-वा-घ-सत्यम्) जो कि सत्य ज्ञान हो (यत्-न विद्मः) जिसको हम न जानें (धियः-हिन्वानः) बुद्धियों को प्रेरित करता हुआ (नः-धियः-इत्-अव्याः) वह तू हमारी बुद्धियों की रक्षा कर ॥५॥
परमात्मा विश्व को बसानेवाला मोक्षधाम का अधिपति, वेदवाणी का धारण करनेवाला, लोकमात्र का निर्माणकर्ता है, उससे सत्य ज्ञान व जिस बात को हम न जानते हों, उस बात का उपदेश लेने और बुद्धि की रक्षा करने की प्रार्थना करनी चाहिये ॥५॥
1975 10-117-7
Better the speaking than the silent Brahman.
1978a 10-2-4
Knowledgeable persons correct the faults and failures.
यद्वो॑ व॒यं प्र॑मि॒नाम॑ व्र॒तानि॑ वि॒दुषां॑ देवा॒ अवि॑दुष्टरासः । अ॒ग्निष्टद्विश्व॒मा पृ॑णाति वि॒द्वान्येभि॑र्दे॒वाँ ऋ॒तुभि॑: क॒ल्पया॑ति ॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
yad vo vayam pramināma vratāni viduṣāṁ devā aviduṣṭarāsaḥ | agniṣ ṭad viśvam ā pṛṇāti vidvān yebhir devām̐ ṛtubhiḥ kalpayāti ||
पद पाठ
तत् । वः॒ । व॒यम् । प्र॒ऽमि॒नाम॑ । व्र॒तानि॑ । वि॒दुषा॑म् । दे॒वाः॒ । अवि॑दुःऽतरासः । अ॒ग्निः । तत् । विश्व॑म् । आ । पृ॒णा॒ति॒ । वि॒द्वान् । येभिः॑ । दे॒वान् । ऋ॒तुऽभिः॑ । क॒ल्पया॑ति ॥ १०.२.४
-(देवाः) हे द्युस्थान के ग्रहों ! (वयम्-अविदुष्टरासः) हम ज्योतिर्विद्या में सर्वथा अज्ञानी (वः-विदुषाम्) तुम ज्योतिर्विद्या के ज्ञाननिमित्तों के (यत्-व्रतानि-प्रमिनाम) जिन कर्मों-नियमों को हिंसित करते हैं-तोड़ते हैं, भूल करते हैं (अग्निः-विद्वान्) सूर्य अग्नि ज्ञान का निमित्त हुआ (तत्-विश्वम्-आपृणाति) उस सब को पूरा कर देता है (येभिः-ऋतुभिः-देवान् कल्पयाति) जिन काल क्रियाओं द्वारा वह ग्रहों को अपने सौरमण्डल के गतिमार्ग में गति करने को समर्थ बनाता है ॥४॥
ग्रहों के ज्ञान में अनभिज्ञ जन जो भूल कर देते हैं, सूर्य को ठीक-ठीक समझने पर वह भूल दूर हो जाती है। कारण कि सूर्य ही कालक्रम से ग्रहों को सर्व गति-मार्गों में चलाता है। विद्वानों के शिक्षण में कहीं अपनी अयोग्यता से भूल या भ्रान्ति प्रतीत हो, तो विद्यासूर्य महा विद्वान् से पूर्ति करनी चाहिये ॥४॥
7.2..2 Knowledge Propagation
1982
Celestials are propitiated for acquisition of knowledge.
7.2.3 Vidya (Knowledge)
1985 1-3-11
It is the inspirer of gracious thoughts.
अव॑ सृजा वनस्पते॒ देव॑ दे॒वेभ्यो॑ ह॒विः। प्र दा॒तुर॑स्तु॒ चेत॑नम्॥
ava sṛjā vanaspate deva devebhyo haviḥ | pra dātur astu cetanam ||
अव॑। सृ॒ज॒। व॒न॒स्प॒ते॒। देव॑। दे॒वेभ्यः॑। ह॒विः। प्र। दा॒तुः। अ॒स्तु॒। चेत॑नम्॥
जो (देव) फल आदि पदार्थों को देनेवाला (वनस्पतिः) वनों के वृक्ष और ओषधि आदि पदार्थों को अधिक वृष्टि के हेतु से पालन करनेवाला (देवेभ्यः) दिव्यगुणों के लिये (हविः) हवन करने योग्य पदार्थों को (अवसृज) उत्पन्न करता है, वह (प्रदातुः) सब पदार्थों की शुद्धि चाहनेवाले विद्वान् जन के (चेतनम्) विज्ञान को उत्पन्न करानेवाला (अस्तु) होता है॥
मनुष्यों ने पृथिवी तथा सब पदार्थ जलमय युक्ति से क्रियाओं में युक्त किये हुए अग्नि से प्रदीप्त होकर रोगों की निर्मूलता से बुद्धि और बल को देने के कारण ज्ञान के बढ़ाने के हेतु होकर दिव्यगुणों का प्रकाश करते हैं॥११॥
1986 1-3-12
It lightens every pure thought.
म॒हो अर्णः॒ सर॑स्वती॒ प्र चे॑तयति के॒तुना॑। धियो॒ विश्वा॒ वि रा॑जति॥
maho arṇaḥ sarasvatī pra cetayati ketunā | dhiyo viśvā vi rājati ||
म॒हः। अर्णः॑। सर॑स्वती। प्र। चे॒त॒य॒ति॒। के॒तुना॑। धियः॑। विश्वाः॑। वि। रा॒ज॒ति॒॥
जो (सरस्वती) वाणी (केतुना) शुभ कर्म अथवा श्रेष्ठ बुद्धि से (महः) अगाध (अर्णः) शब्दरूपी समुद्र को (प्रचेतयति) जनानेवाली है, वही मनुष्यों की (विश्वाः) सब बुद्धियों को (विराजति) विशेष करके प्रकाश करती है॥१२॥
इस मन्त्र में वाचकोपमेयलुप्तोपमालङ्कार दिखलाया है। जैसे वायु से तरङ्गयुक्त और सूर्य्य से प्रकाशित समुद्र अपने रत्न और तरङ्गों से युक्त होने के कारण बहुत उत्तम व्यवहार और रत्नादि की प्राप्ति में बड़ा भारी माना जाता है, वैसे ही जो आकाश और वेद का अनेक विद्यादि गुणवाला शब्दरूपी महासागर को प्रकाशित करानेवाली वेदवाणी का उपदेश है, वही साधारण मनुष्यों की यथार्थ बुद्धि का बढ़ानेवाला होता है॥१२॥ दो सूक्तों की विद्या का प्रकाश करके इस तृतीय सूक्त से क्रियाओं का हेतु अश्विशब्द का अर्थ और उसके सिद्ध करनेवाले विद्वानों का लक्षण तथा विद्वान् होने का हेतु सरस्वती शब्द से सब विद्याप्राप्ति के निमित्त वाणी के प्रकाश करने से जान लेना चाहिये।
1987
It brings all good.
7.2.4 Avidya (Ignorance)
7.2.5 Vijnanam (Wisdom)
1993 9-9-9
Wisdom is the light which is to be won.
पव॑मान॒ महि॒ श्रवो॒ गामश्वं॑ रासि वी॒रव॑त् । सना॑ मे॒धां सना॒ स्व॑: ॥
pavamāna mahi śravo gām aśvaṁ rāsi vīravat | sanā medhāṁ sanā svaḥ ||
पव॑मान । महि॑ । श्रवः॑ । गाम् । अश्व॑म् । रा॒सि॒ । वी॒रऽव॑त् । सना॑ । मे॒धाम् । सना॑ । स्वः॑ ॥ ९.९.९
(पवमान) हे सबको पवित्र करनेवाले परमात्मन् ! (महि, श्रवः) हमको सर्वोपरि आनन्द प्रदान करो और (गाम् अश्वम्) गौ अश्वादि नाना प्रकार के ऐश्वर्य के साधन (रासि) आप हमको दें और (वीरवत्) वीरता धर्मवाले मनुष्य (सना) देवें (मेधाम्) बुद्धि और (स्वः) स्वर्ग (सना) देवें ॥९॥
जिस जाति वा धर्म पर परमात्मा की अत्यन्त कृपा होती है, उसको परमात्मा नाना प्रकार के ऐश्वर्य के साधन प्रदान करता है और शुद्ध बुद्धि तथा सर्वोपरि आनन्द का प्रदान करता है ॥
7.3 Human Resource Management
7.3.1 Employee remuneration
7.3.2 Equal remuneration
7.3.3 Personality management
7.3.3a Annamaya or physical personality
7.3.3b Pranamaya or energetic personality
7.3.3c Manomaya or emotional personality
7.3.3d Vijñanamaya or intellectual personality
7.3.3e Anandamaya or creative personality
7.3.3f Vedic Personality pyramid
7.3.4 Varna and management
2001 1-113-6
One for high sway, one for exalted glory, one for pursuit of gain and one for labor.
क्ष॒त्राय॑ त्वं॒ श्रव॑से त्वं मही॒या इ॒ष्टये॑ त्व॒मर्थ॑मिव त्वमि॒त्यै। विस॑दृशा जीवि॒ताभि॑प्र॒चक्ष॑ उ॒षा अ॑जीग॒र्भुव॑नानि॒ विश्वा॑ ॥
kṣatrāya tvaṁ śravase tvam mahīyā iṣṭaye tvam artham iva tvam ityai | visadṛśā jīvitābhipracakṣa uṣā ajīgar bhuvanāni viśvā ||
क्ष॒त्राय॑। त्व॒म्। श्रव॑से। त्व॒म्। म॒ही॒यै। इ॒ष्टये॑। त्व॒म्। अर्थ॑म्ऽइव। त्व॒म्। इ॒त्यै। विऽस॑दृशा। जी॒वि॒ता। अ॒भि॒ऽप्र॒चक्षे॑। उ॒षाः। अ॒जी॒गः॒। भुव॑नानि। विश्वा॑ ॥ १.११३.६
हे विद्वन् सभाध्यक्ष राजन् ! जैसे (उषाः) प्रातर्वेला अपने प्रकाश से (विश्वा) सब (भुवनानि) लोकों को (अजीगः) ढाँक लेती है (त्वम्) तू (अभिप्रचक्षे) अच्छे प्रकार शास्त्र-बोध से सिद्ध वाणी आदि व्यवहाररूप (क्षत्राय) राज्य के लिये और (त्वम्) तू (श्रवसे) श्रवण और अन्न के लिये (त्वम्) तू (इष्टये) इष्ट सुख और (महीयै) सत्कार के लिये और (त्वम्) तू (इत्यै) सङ्गति प्राप्ति के लिये (विसदृशा) विविध धर्मयुक्त व्यवहारों के अनुकूल (अर्थमिव) द्रव्यों के समान (जीविता) जीवनादि को सदा सिद्ध किया कर ॥ ६ ॥
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्या विनय से प्रकाशमान सत्पुरुष सब समीपस्थ पदार्थों को व्याप्त होकर उनके गुणों के प्रकाश से समस्त अर्थों को सिद्ध करनेवाले होते हैं, वैसे राजादि पुरुष विद्या न्याय और धर्मादि को सब ओर से व्याप्त होकर चक्रवर्त्ती राज्य की यथावत् रक्षा से सब आनन्द को सिद्ध करें ॥ ६ ॥
2006 10-191-2 to 4
The minds shall be of one accord, aim be common, assembly be common and thoughts be
united. The purpose be common and hearts be united for happily living together.
सं ग॑च्छध्वं॒ सं व॑दध्वं॒ सं वो॒ मनां॑सि जानताम् । दे॒वा भा॒गं यथा॒ पूर्वे॑ संजाना॒ना उ॒पास॑ते ॥
saṁ gacchadhvaṁ saṁ vadadhvaṁ saṁ vo manāṁsi jānatām | devā bhāgaṁ yathā pūrve saṁjānānā upāsate ||
सम् । ग॒च्छ॒ध्व॒म् । सम् । व॒द॒ध्व॒म् । सम् । वः॒ । मनां॑सि । जा॒न॒ता॒म् । दे॒वाः । भा॒गम् । यथा॑ । पूर्वे॑ । स॒म्ऽजा॒ना॒नाः । उ॒प॒ऽआस॑ते ॥ १०.१९१.२
सं गच्छध्वम्) हे मनुष्यों तुम लोग परस्पर संगत हो जाओ, समाज के रूप में मिल जाओ, इसलिए कि (सं वदध्वम्) तुम संवाद कर सको, विवाद नहीं, इसलिए कि (वः-मनांसि) तुम्हारे मन (सं जानताम्) संगत हो जावें-एक हो जावें, इसलिए कि (सञ्जानानाः पूर्वे देवाः) एक मन हुए पूर्व के विद्वान् (यथा) जैसे (भागम्-उपासते) भाग अपने अधिकार या लाभ को सेवन करते थे, वैसे तुम भी कर सको ॥२॥
मनुष्यों में अलग-अलग दल न होने चाहिए, किन्तु सब मिलकर एक सूत्र में बँधें, मिलकर रहें, इसलिए मिलें कि परस्पर संवाद कर सकें, एक-दूसरे के सुख-दुःख और अभिप्राय को सुन सकें और इसलिए संवाद करें कि मन सब का एक बने-एक ही लक्ष्य बने और एक लक्ष्य इसलिये बनना चाहिये कि जैसे श्रेष्ठ विद्वान् एक मन बनाकर मानव का सच्चा सुख प्राप्त करते रहे, ऐसे तुम भी करते रहो ॥२॥
7.3.5 Asrama and management
7.3.6 Labor welfare
2008 4-57-8
The farmers shall plough the land happily.
शु॒नं नः॒ फाला॒ वि कृ॑षन्तु॒ भूमिं॑ शु॒नं की॒नाशा॑ अ॒भि य॑न्तु वा॒हैः। शु॒नं प॒र्जन्यो॒ मधु॑ना॒ पयो॑भिः॒ शुना॑सीरा शु॒नम॒स्मासु॑ धत्तम् ॥८॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
śunaṁ naḥ phālā vi kṛṣantu bhūmiṁ śunaṁ kīnāśā abhi yantu vāhaiḥ | śunam parjanyo madhunā payobhiḥ śunāsīrā śunam asmāsu dhattam ||
पद पाठ
शु॒नम्। नः॒। फालाः॑। वि। कृ॒ष॒न्तु॒। भूमि॑म्। शु॒नम्। की॒नाशाः॑। अ॒भि। य॒न्तु॒। वा॒हैः। शु॒नम्। प॒र्जन्यः॑। मधु॑ना। पयः॑ऽभिः। शुना॑सीरा। शु॒नम्। अ॒स्मासु॑। ध॒त्त॒म् ॥८॥
-जैसे (फालाः) लोहे से बनाई गई भूमि के खोदने के लिये वस्तुएँ (वाहैः) बैल आदिकों के द्वारा (नः) हम लोगों के लिये (भूमिम्) भूमि को (शुनम्) सुखपूर्वक (वि, कृषन्तु) खोदें (कीनाशाः) कृषिकर्म्म करनेवाले (शुनम्) सुख को (अभि, यन्तु) प्राप्त हों (पर्जन्यः) मेघ (मधुना) मधुर आदि गुण से (पयोभिः) और जलों से (शुनम्) सुख को वर्षावे, वैसे (शुनासीरा) अर्थात् सुख देनेवाले स्वामी और भृत्य कृषिकर्म करनेवाले तुम दोनों (अस्मासु) हम लोगों में (शुनम्) सुख को (धत्तम्) धारण करो ॥८॥
कृषिकर्म्म करनेवाले मनुष्यों को चाहिये कि उत्तम फाल आदि वस्तुओं को बनाय के हल आदि से भूमि को उत्तम करके अर्थात् गोड़ के उत्तम सुख को प्राप्त हों, वैसे ही अन्य राजा आदि के लिये सुख देवें ॥८॥
2009 4-57-4
The steers and men shall work happily.
शु॒नं वा॒हाः शु॒नं नरः॑ शु॒नं कृ॑षतु॒ लाङ्ग॑लम्। शु॒नं व॑र॒त्रा ब॑ध्यन्तां शु॒नमष्ट्रा॒मुदि॑ङ्गय ॥४॥
śunaṁ vāhāḥ śunaṁ naraḥ śunaṁ kṛṣatu lāṅgalam | śunaṁ varatrā badhyantāṁ śunam aṣṭrām ud iṅgaya ||
शु॒नम्। वा॒हाः। शु॒नम्। नरः॑। शु॒नम्। कृ॒ष॒तु॒। लाङ्ग॑लम्। शु॒नम्। व॒र॒त्राः। ब॑ध्य॒न्ताम्। शु॒नम्। अष्ट्रा॑म्। उत्॑। इ॒ङ्ग॒य॒ ॥४॥
हे खेती करनेवाले जन ! जैसे (वाहाः) बैल आदि पशु (शुनम्) सुख को प्राप्त हों (नरः) मुखिया कृषीवल (शुनम्) सुख को करें (लाङ्गलम्) हल का अवयव (शुनम्) सुख जैसे हो, वैसे (कृषतु) पृथिवी में प्रविष्ट हो और (वरत्राः) बैल की रस्सी (शुनम्) सुखपूर्वक (बध्यन्ताम्) बाँधी जायें, वैसे (अष्ट्राम्) खेती के साधन के अवयव को (शुनम्) सुखपूर्वक (उत्, इङ्गय) ऊपर चलाओ ॥४॥
खेती करनेवाले जन उत्तम हल आदि सामग्री, वृषभ और बीजों को इकट्ठे करके खेतों को उत्तम प्रकार जोत कर उनमें उत्तम अन्नों को उत्पन्न करें ॥४॥
7.3.7 Succession management
7.4 Relationship Marketing
2014 4-9-7
One shall quickly listen to others’ calls.
अ॒स्माकं॑ जोष्यध्व॒रम॒स्माकं॑ य॒ज्ञम॑ङ्गिरः। अ॒स्माकं॑ शृणुधी॒ हव॑म् ॥७॥
asmākaṁ joṣy adhvaram asmākaṁ yajñam aṅgiraḥ | asmākaṁ śṛṇudhī havam ||
अ॒स्माक॑म्। जो॒षि॒। अ॒ध्व॒रम्। अ॒स्माक॑म्। य॒ज्ञम्। अ॒ङ्गि॒रः॒। अ॒स्माक॑म्। शृ॒णु॒धि॒। हव॑म्॥७॥
हे (अङ्गिरः) प्राण के सदृश प्रिय राजन् ! जिससे आप (अस्माकम्) हम लोगों के (अध्वरम्) न्यायव्यवहार और (अस्माकम्) हम लोगों के (यज्ञम्) विद्वानों के सत्कार आदि क्रियामय व्यवहार को (जोषि) सेवन करते हो इससे (अस्माकम्) हम लोगों के (हवम्) शब्द अर्थ सम्बन्धरूप विषय को (शृणुधि) सुनिये ॥७॥
हे राजन् ! जिससे कि आप हम लोगों की रक्षा करनेवाले प्रिय हैं, इससे अर्थी अर्थात् मुद्दई और प्रत्यर्थी अर्थात् मुद्दायले के वचनों को सुन के निरन्तर न्याय विधान करो ॥७॥
2015 8-80-4
One shall help and work for others.
इन्द्र॒ प्र णो॒ रथ॑मव प॒श्चाच्चि॒त्सन्त॑मद्रिवः । पु॒रस्ता॑देनं मे कृधि ॥
indra pra ṇo ratham ava paścāc cit santam adrivaḥ | purastād enam me kṛdhi ||
पद पाठ
इन्द्र॑ । प्र । नः॒ । रथ॑म् । अ॒व॒ । प॒श्चात् । चि॒त् । सन्त॑म् । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । पु॒रस्ता॑त् । ए॒न॒म् । मे॒ । कृ॒धि॒ ॥ ८.८०.४
(शतक्रतो) हे अनन्तकर्म्मा सर्वशक्तिमान् परमात्मन् ! तुझसे (अन्यं) दूसरा कोई (मर्डितारम्) सुखकारी देव (नहि) नहीं है। (अकरं) यह मैं अच्छी तरह से देखता और सुनता हूँ। (बळा) यह सत्य है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है। हे (इन्द्र) इन्द्र ! इस हेतु (नः) हम लोगों को (त्वं) तू (मृळय) सुखी बना ॥१॥
ईश्वर ही जीवमात्र का सुखकारी होने के कारण सेव्य और स्तुत्य है ॥१॥ (Seems different mantra)
7.5 Trade and Commerce
2024
The Vedas speak of merchant (vanij).
2025
The Vedas contain reference about price.
2027
The haggling of the market is seen in the Vedas.
7.6 Social responsibilities
7.6.1 Protection of poor
7.6.2 Absence of profiteering
7.6.3 Protection of interests of workers
7.6.4 Protection of interests of Farmers
7.6.5 Protection of interests of animals
7.6.6 Sponsorship
7.6.7 Rejection of evil
7.8 Quality system
7.9 Total Quality Management
7.10 Benchmarking
7.12 Culture Management
7.12.1 Cultural Practices
7.12.3 Dance
7.12.5 Recreation
7.12.6 Cultural diversity
7.7 Time management
2041 5-79-9
One shall not delay to perform his tasks.
व्यु॑च्छा दुहितर्दिवो॒ मा चि॒रं त॑नुथा॒ अपः॑। नेत्त्वा॑ स्ते॒नं यथा॑ रि॒पुं तपा॑ति॒ सूरो॑ अ॒र्चिषा॒ सुजा॑ते॒ अश्व॑सूनृते ॥९॥
vy ucchā duhitar divo mā ciraṁ tanuthā apaḥ | net tvā stenaṁ yathā ripuṁ tapāti sūro arciṣā sujāte aśvasūnṛte ||
वि। उ॒च्छ॒। दु॒हि॒तः॒। दि॒वः॒। मा। चि॒रम्। त॒नु॒थाः॒। अपः॑। नः। इत्। त्वा॒। स्ते॒नम्। यथा॑। रि॒पुम्। तपा॑ति। सूरः॑। अ॒र्चिषा॑। सुऽजा॑ते। अश्व॑ऽसूनृते ॥९॥
(सुजाते) उत्तम विद्या से प्रकट हुई (अश्वसूनृते) बड़े ज्ञान से युक्त (दिवः) प्रकाश की (दुहितः) कन्या के सदृश वर्त्तमान उत्तम आचरणवाली स्त्रि ! तू (अपः) कर्म को (चिरम्) बहुत काल पर्यन्त (मा) नहीं (तनुथाः) विस्तार कर (यथा) जैसे (रिपुम्) शत्रु को (तपाति) संतापित करती है, वैसे (स्तेनम्) चोर को सन्तापित कर और (त्वा) तुझको कोई भी (न) नहीं सन्तापयुक्त करे और जैसे (अर्चिषा) तेज से (सूरः) सूर्य सब को तपाता है, वैसे (इत्) ही तू दुष्टजनों को सन्तापित करके हम लोगों को (वि, उच्छा) अच्छे प्रकार वसाओ ॥९॥
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो स्त्री और पुरुष मन्द, आलसी और चोर नहीं होते हैं, वे सूर्य्य के सदृश प्रकाशित होते हैं ॥९॥
7.11 Kaizen
2054 1-31-8
One shall improve upon the rites with new performance.
त्वं नो॑ अग्ने स॒नये॒ धना॑नां य॒शसं॑ का॒रुं कृ॑णुहि॒ स्तवा॑नः। ऋ॒ध्याम॒ कर्मा॒पसा॒ नवे॑न दे॒वैर्द्या॑वापृथिवी॒ प्राव॑तं नः ॥
tvaṁ no agne sanaye dhanānāṁ yaśasaṁ kāruṁ kṛṇuhi stavānaḥ | ṛdhyāma karmāpasā navena devair dyāvāpṛthivī prāvataṁ naḥ ||
त्वम्। नः॒। अ॒ग्ने॒। स॒नये॑। धना॑नाम्। य॒शस॑म्। का॒रुम्। कृ॒णु॒हि॒। स्तवा॑नः। ऋ॒ध्याम॑। कर्म॑। अ॒पसा॑। नवे॑न। दे॒वैः। द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ इति॑। प्र। अ॒व॒त॒म्। नः॒ ॥
हे (अग्ने) कीर्त्ति और उत्साह के प्राप्त करानेवाले जगदीश्वर वा परमेश्वरोपासक ! (स्तवानः) आप स्तुति को प्राप्त होते हुए (नः) हम लोगों के (धनानाम्) विद्या सुवर्ण चक्रवर्त्ति राज्य प्रसिद्ध धनों के (सनये) यथायोग्य कार्य्यों में व्यय करने के लिये (यशसम्) कीर्त्तियुक्त (कारुम्) उत्साह से उत्तम कर्म करनेवाले उद्योगी मनुष्य को नियुक्त (कृणुहि) कीजिये, जिससे हम लोग नवीन (अपसा) पुरुषार्थ से (नित्य) नित्य बुद्धियुक्त होते रहें और आप दोनों विद्या की प्राप्ति के लिये (देवैः) विद्वानों के साथ करते हुए (नः) हम लोगों की और (द्यावापृथिवी) सूर्य प्रकाश और भूमि को (प्रावतम्) रक्षा कीजिये ॥ ८ ॥
मनुष्यों को परमेश्वर की इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये कि हे परमेश्वर ! आप कृपा करके हम लोगों में उत्तम धन देनेवाली सब शिल्पविद्या के जाननेवाले उत्तम विद्वानों को सिद्ध कीजिये, जिससे हम लोग उनके साथ नवीन-नवीन पुरुषार्थ करके पृथिवी के राज्य और सब पदार्थों से यथायोग्य उपकार ग्रहण करें ॥ ८ ॥
2055 1-105-15
Let the rite be born anew.
ब्रह्मा॑ कृणोति॒ वरु॑णो गातु॒विदं॒ तमी॑महे। व्यू॑र्णोति हृ॒दा म॒तिं नव्यो॑ जायतामृ॒तं वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी ॥
brahmā kṛṇoti varuṇo gātuvidaṁ tam īmahe | vy ūrṇoti hṛdā matiṁ navyo jāyatām ṛtaṁ vittam me asya rodasī ||
ब्रह्मा॑। कृ॒णो॒ति॒। वरु॑णः। गा॒तु॒ऽविद॑म्। तम्। ई॒म॒हे॒। वि। ऊ॒र्णो॒ति॒। हृ॒दा। म॒तिम्। नव्यः॑। जा॒य॒ता॒म्। ऋ॒तम्। वि॒त्तम्। मे॒। अ॒स्य। रो॒द॒सी॒ इति॑ ॥ १.१०५.१५
हम लोग जो (ऋतम्) सत्यस्वरूप (ब्रह्म) परमेश्वर वा (वरुणः) सबसे उत्तम विद्वान् (गातुविदम्) वेदवाणी के जाननेवाले को (कृणोति) करता है (तम्) उसको (ईमहे) याचते अर्थात् उससे माँगते हैं कि उसकी कृपा से जो (नव्यः) नवीन विद्वान् (हृदा) हृदय से (मतिम्) विशेष ज्ञान को (व्यूर्णोति) उत्पन्न करता है अर्थात् उत्तम-उत्तम रीतियों को विचारता है वह हम लोगों के बीच (जायताम्) उत्पन्न हो। शेष अर्थ प्रथम मन्त्र के तुल्य जानना चाहिये ॥ १५ ॥
किसी मनुष्य पर पिछले पुण्य इकट्ठे होने और विशेष शुद्ध क्रियमाण कर्म करने के विना परमेश्वर की दया नहीं होती और उक्त व्यवहार के विना कोई पूरी विद्या नहीं पा सकता, इससे सब मनुष्यों को परमात्मा की ऐसी प्रार्थना करनी चाहिये कि हम लोगों में परिपूर्ण विद्यावान् अच्छे-अच्छे गुण, कर्म, स्वभावयुक्त मनुष्य सदा हों। ऐसी प्रार्थना को नित्य प्राप्त हुआ परमात्मा सर्वव्यापकता से उनके आत्मा का प्रकाश करता है, यह निश्चय है ॥ १५ ॥
2056
One shall be truthful in his deeds.
2057
The rites shall be done with one accord.
7.12.2 Music
2070
The singer shall be assisted in his holy task.
7.12.4 Sports
2077
The Vedas contain references about horse racing.
7.13 Value System and ethical practices
2086 10-67-2
One shall be straight forward.
ऋ॒तं शंस॑न्त ऋ॒जु दीध्या॑ना दि॒वस्पु॒त्रासो॒ असु॑रस्य वी॒राः । विप्रं॑ प॒दमङ्गि॑रसो॒ दधा॑ना य॒ज्ञस्य॒ धाम॑ प्रथ॒मं म॑नन्त ॥
ṛtaṁ śaṁsanta ṛju dīdhyānā divas putrāso asurasya vīrāḥ | vipram padam aṅgiraso dadhānā yajñasya dhāma prathamam mananta ||
ऋ॒तम् । शंस॑न्तः । ऋ॒जु । दीध्या॑नाः । दि॒वः । पु॒त्रासः॑ । असु॑रस्य । वी॒राः । विप्र॑म् । प॒दम् । अङ्गि॑रसः । दधा॑नाः । य॒ज्ञस्य॑ । धाम॑ । प्र॒थ॒मम् । म॒न॒न्त॒ ॥ १०.६७.२
(ऋतं शंसन्तः) वेदज्ञान का उपदेश करते हुए (ऋजुदीध्यानाः) सरल स्वभाववाले परमात्मा का ध्यान करते हुए (दिवः-पुत्रासः) ज्ञानप्रकाशक परमात्मा के पुत्रसमान परमऋषि (असुरस्य वीराः) प्राणप्रद परमेश्वर के ज्ञानी (अङ्गिरसः) अङ्गों के स्वाधीन प्रेरित करनेवाले संयमी (विप्रं प्रदं दधानाः) विशेषरूप से तृप्त करनेवाले प्रापणीय परमात्मा को धारण करते हुए उपासक (यज्ञस्य प्रथमं धामं मनन्त) सङ्गमनीय परमात्मा के प्रमुख धाम-स्वरूप को मानते हैं ॥२॥
आदि सृष्टि में परम ऋषि वेदज्ञान का उपदेश करते हैं, वे परमात्मा के ध्यान में मग्न हुए परमात्मा के पुत्रसमान, अपनी इन्द्रियों के स्वामी-संयमी होते हैं। वे परमात्मा के स्वरूप को यथार्थरूप से जानते हैं, वैसे ही दूसरों को भी जनाते हैं ॥२॥
2094
A moral wins no riches by unworthy praise.
7.14 Corporate Governance
2099
Guile closely follows those men who are untruthful.
2102
No secrets may be hidden from one’s knowledge.
7.15 Globalization
2105
One shall not sin against a neighbor or foreigner.
2108
Improve with new performance
7.16 Productivity management
2113 10-22-8
One who does not work is a social evil.
अ॒क॒र्मा दस्यु॑र॒भि नो॑ अम॒न्तुर॒न्यव्र॑तो॒ अमा॑नुषः । त्वं तस्या॑मित्रह॒न्वध॑र्दा॒सस्य॑ दम्भय ॥
akarmā dasyur abhi no amantur anyavrato amānuṣaḥ | tvaṁ tasyāmitrahan vadhar dāsasya dambhaya ||
अ॒क॒र्मा । दसुः॑ । अ॒भि । नः॒ । अ॒म॒न्तुः । अ॒न्यऽव्र॑तः । अमा॑नुषः । त्वम् । तस्य॑ । अ॒मि॒त्र॒ऽह॒न् । वधः॑ । दा॒सस्य॑ । द॒म्भ॒य॒ ॥ १०.२२.८
(अकर्मा) जो सत्कर्मशून्य-धर्मकर्मरहित (दस्युः) पीडक तथा (अमन्तुः) दूसरे को मान न देनेवाला गर्वित (अन्यव्रतः) अन्यथाचारी (अमानुषः) मनुष्यस्वभाव से भिन्न (नः-अभि) हमारे पर अभिभूत होता है-हमें दबाता है-सताता है (तस्य दासस्य) उस नीच जन का (वधः) जो हननसाधन है (त्वम्-अमित्रहन्) तू क्रूरजन के हन्ता परमात्मन् या राजन् ! (दम्भय) उसे नष्ट कर ॥८॥
भावार्थभाषाः -धर्म-कर्मरहित, गर्वित, अन्यथाचारी, मनुष्यस्वभाव से भिन्न, दूसरों को दबानेवाले, सतानेवाले को परमात्मा या राजा नष्ट किया करता है ॥८॥
7.17 Competition management
2116
Enemies are to be crushed and subdued.
2117
One may win over war with one's kin or stranger.
2122 2-40-5
Overcome in all encounters
विश्वा॑न्य॒न्यो भुव॑ना ज॒जान॒ विश्व॑म॒न्यो अ॑भि॒चक्षा॑ण एति। सोमा॑पूषणा॒वव॑तं॒ धियं॑ मे यु॒वाभ्यां॒ विश्वाः॒ पृत॑ना जयेम॥
viśvāny anyo bhuvanā jajāna viśvam anyo abhicakṣāṇa eti | somāpūṣaṇāv avataṁ dhiyam me yuvābhyāṁ viśvāḥ pṛtanā jayema ||
विश्वा॑नि। अ॒न्यः। भु॒व॒ना। ज॒जान॑। विश्व॑म्। अ॒न्यः। अ॒भि॒ऽचक्षा॑णः। ए॒ति॒। सोमा॑पूषणौ। अव॑तम्। धिय॑म्। मे॒। यु॒वाभ्या॑म्। विश्वाः॑। पृत॑नाः। ज॒ये॒म॒॥
हे अध्यापक और उपदेशको ! जो (अन्यः) भिन्न भाग (विश्वानि) समस्त (भुवना) लोकों में प्रसिद्ध पदार्थों को (जजान) उत्पन्न करता जो (अन्यः) और (अभिचक्षाणः) प्रकट वाणी का विषय (विश्वम्) संसार को (एति) प्राप्त होता उन दोनों (सोमापूषणौ) शान्ति और पुष्टि गुणवाले वायु का उपदेश देकर (मे) मेरी (धियम्) बुद्धि की तुम दोनों (अवतम्) रक्षा करो जिससे (युवाभ्याम्) तुम दोनों के साथ हम लोग (विश्वाः) समस्त (पृतनाः) मनुष्यों को (जयेम) उत्कर्ष दें ॥५॥
जो वायु सब लोकों को धरता और जो शब्द प्रयोग वा श्रवण का निमित्त है, उसके विज्ञान कराने से सब मनुष्यों की उन्नति करनी चाहिये ॥५॥
7.18 Change management
2126 10-85-27
Be vigilant, closely united, happy and prosperous in the new environment
इ॒ह प्रि॒यं प्र॒जया॑ ते॒ समृ॑ध्यताम॒स्मिन्गृ॒हे गार्ह॑पत्याय जागृहि । ए॒ना पत्या॑ त॒न्वं१॒॑ सं सृ॑ज॒स्वाधा॒ जिव्री॑ वि॒दथ॒मा व॑दाथः ॥
iha priyam prajayā te sam ṛdhyatām asmin gṛhe gārhapatyāya jāgṛhi | enā patyā tanvaṁ saṁ sṛjasvādhā jivrī vidatham ā vadāthaḥ ||
इ॒ह । प्रि॒यम् । प्र॒ऽजया॑ । ते॒ । सम् । ऋ॒ध्य॒ता॒म् । अ॒स्मिन् । गृ॒हे । गार्ह॑ऽपत्याय । जा॒गृ॒हि॒ । ए॒ना । पत्या॑ । त॒न्व॑म् । सम् । सृ॒ज॒स्व॒ । अध॑ । जिव्री॒ इति॑ । वि॒दथ॑म् । आ । व॒दा॒थः॒ ॥ १०.८५.२७
इह ते प्रियम्) हे वधू ! इस पतिगृह में तेरा अभीष्ट (प्रजया समृध्यताम्) सन्तति के साथ समृद्ध हो (अस्मिन् गृहे) इस घर में (गार्हपत्याय, जागृहि) गृहस्थ कर्म के लिये सावधान हो-संयम से गृहस्थकर्म आचरण कर (एना पत्या) इस पति के साथ (तन्वं संसृज) स्वशरीर को सम्पृक्त कर-संयुक्त कर (अध) पुनः (जिव्री) तुम दोनों जीर्ण-वृद्ध हुए भी (विदथम्) परस्पर सहानुभूतिवचन (आवदाथः) भलीभाँति बोलो ॥२७॥
स्त्री का अभीष्ट पतिगृह में है, जो सन्तान के साथ पूरा होता है, गृहस्थ संयम से करना चाहिए, वरवधू वृद्ध होने पर भी मीठा हितकर बोलें ॥२७॥
2127 10-85-36
Bring happy fortune to the new environment.
गृ॒भ्णामि॑ ते सौभग॒त्वाय॒ हस्तं॒ मया॒ पत्या॑ ज॒रद॑ष्टि॒र्यथास॑: । भगो॑ अर्य॒मा स॑वि॒ता पुरं॑धि॒र्मह्यं॑ त्वादु॒र्गार्ह॑पत्याय दे॒वाः ॥
gṛbhṇāmi te saubhagatvāya hastam mayā patyā jaradaṣṭir yathāsaḥ | bhago aryamā savitā puraṁdhir mahyaṁ tvādur gārhapatyāya devāḥ ||
गृ॒भ्णामि॑ । ते॒ । सौ॒भ॒ग॒ऽत्वाय॑ । हस्त॑म् । मया॑ । पत्या॑ । ज॒रत्ऽअ॑ष्टिः । यथा॑ । असः॑ । भगः॑ । अ॒र्य॒मा । स॒वि॒ता । पुर॑म्ऽधिः । मह्य॑म् । त्वा॒ । अ॒दुः॒ । गार्ह॑ऽपत्याय । दे॒वाः ॥ १०.८५.३६
(ते हस्तम्) हे वधू ! तेरे हाथ को (सौभगत्वाय गृभ्णामि) सौभाग्य के लिये मैं पति ग्रहण करता हूँ (मया पत्या) मुझ पति के साथ (यथा जरदष्टिः-असः) जैसे ही तू जरापर्यन्त सुख भोगनेवाली हो (भगः-अर्यमा सविता) ऐश्वर्यवान् परमात्मा, पुरोहित, जनक-तेरा पिता (पुरन्धिः-देवाः) नगरधारक राजकर्मचारी, ये सब देवभूत पूजनीय महानुभाव (गार्हपत्याय) गृहस्थाश्रम के पति होने के लिये (त्वा मह्यम्-अदुः) तुझे मेरे लिये देते हैं ॥३६॥
विवाहसम्बन्ध परमात्मा के आदेशानुसार पुरोहित, पिता, नगराधिकारी इनके साक्षित्व में होना चाहिए। पति-पत्नी का सम्बन्ध गृहस्थ में एक दूसरे को जरापर्यन्त पालन के ढंग का होता है ॥३६॥
2128
The old wakes up the young from slumber.
7.19 Managing oneself
7.20 Summary
Chapter 8. Vedic Model of Excellence
2132
Act with one mind and one thought
2133
Deeds shall be pure
2134
One who does not work is a social evil.
2135
Rigveda tells to strive for harmony, understanding and togetherness. Universal brotherhood is prescribed by it.
"Common be your prayers. Common be your goal.
2195
One recites rigveda
2211
One builds a ship with oars to support
2094.
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44. Sam 6-52-5
वि॒श्व॒दानीं॑ सु॒मन॑सः स्याम॒ पश्ये॑म॒ नु सूर्य॑मु॒च्चर॑न्तम् । तथा॑ कर॒द्वसु॑पति॒र्वसू॑नां दे॒वाँ ओहा॒नोऽव॒साग॑मिष्ठः ॥५॥
Kannan says "Always be health-minded."
68 Sam 7-8-5
Nourish the body.
73. 7-8-5
Prayers are offered for the well-being of the various parts of the human body.
85. 1-11-2
Live fearlessly
92. 10-18-6
Live fully and find delight in old age.
122. 10-31-2
One should counsel himself with his own mental power.
125. 8-19-20
Mind should be uplifted.
126. 6-52-5
Be health-minded throughout all days.
127. 10-64-7
Perform with one mind and thought.
145. 6-52-5
Always be healthy-minded.
165. 10-117-1
Gods have not destined hunger to be one's death.
182. 10-117-1
Death approaches even a well nourished man in different ways.
199. 1-164-48
The fellies (months) are twelve, the wheel (year) is single and the spokes (days) are three hundred and sixty.
214. 5-79-9
Do tasks without any delay.
218. 1-125-1
Getting up early morning fetches wealth.
253. 1-44-8
256. 4-51-11
260. 10-85-1
283. 10-151-4
284. 10-151-5
285. 10-151-4
287. 10-151-2
297. 10-103-6
298. 8-31-13
299. 9-86-29
300. 8-75-5
302. 3-54-3
303. 1-24-10
304. 8-25-17
305. 5-69-4
308. 1-41-4
309. 1-123-13
310.5-62-1
311. 5-68-4
312. 7-63-3
313. 7-27-16
314. 8-27-16
316. 1-51-8
324. 7-62-6
328. 4-51-11
333. 7-62-5
338. 1-51-8
345. 7-62-2
346. 9-77-5
351. 10-18-10
375. 10-190-1
410. 7-86-6
416. 1-38-6
420. 10-34-13
432. 7-48-14
433. 7-2-18
434. 10-134-7
435. 5-2-6
439. 1-24-4
440. 10-63-13
450. 9-73-6
451. 7-21-5
462. 7-86-5
482
485
486
488
489
503
504
508
513
516
520
522
523
525
540
568
570
572
579
586
598
620
652
664
665
669
670
671
672
673
699
716
788
789
790
791
793
795
798
800
801
802
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804
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1711
Chapter 6 Veda and Modern Business Management Principles
1787 9-112-1
The ways of men are variegated and all have diverse thoughts and plans.
1788 10-90-12
A person with the mental temperament of a Brahmana ideally suited for planning any task.
1794 10-101-2
Prepare the implements, make everything ready and move forward.
1797 - repeat 1788
1805 1-17-4
Powers shall be shared.
1808 10-191-2
People shoud assemble and talk together with minds of common accord.
1809 10-191-3
The place, the assembly, the mind and the thought should be the same and united.
1810 10-191-4
The resolution should be common, minds and thought be united so that all may happily concur.
1811 5-59-6
With no eldest, no youngest,no middlemost, they have grown in might.
1812 5-60-5
None among them is eldest or youngest.
1815
The leader is the does of many deeds for the benefit of others.
1816
He is the doer of glorious and great deeds
1817
He is the all-rounder.
1818
He shares powers
1819
He destroys the foes
1820
Leader shall be for the benefit of his followers.
1821
The kindness of the leader guides the followers
1822
He hears the words of his followers
1823
He is a thinker
1824
He corrects the failures of his followers
1825
He is rigtheous
1826
He is never niggardly in thought
1827
He inspires gracious thought.
1828
He is most liberal
1829
He defeats evil enemies.
1830
He knows, directs others property.
1831
He is very wise.
1832
He provides total freedom to others.
1837
Be tge highest, having gained the leader's strength in war and skill in peace.
1849
The vedas speak of thirty three devas comprising 8 vasus, 11 Rudras, 12 Adityas, Prajapati and Vasatkara.
1850
In addition to this many Gods as well as Goddesses are addressed by the Vedas. The Rg Veda speaks of Pusan, Pavamana, Varuna, Mitra, Maruts, Asvins, Vayu, Brhaspati, Savitar, Sarasvati, Heaven, Earth, Vidhatar, Aditi, Aryanman, INdra, visnu, (1850) Visvedeva (1851) and Bhaga 1852).
1851
1852
1853
The three hundred and thirty nine deities serve and onour Agni.
1855
Agni assigns each God his appropriate season
1863
Ancient Gods unanimously share.
1864
The Rg Vedic declaration that, "They speak of Indra, Mitra, Varuna, Agni as well as the divine bird Garutman, Yama and Matarisvan: Truth is one, sages call it by various names "(Ekam sat, vipra bahudha vadanti) is the core unifying factor despite the multitude of Gods.
1868
All shall be united like spokes of car-wheel in one nave.
1869
Every one should help and extend assistance to others.
1870
The thoughts shall be united.
1871
All should unite.
1872
Speak for brotherhood.
1873 9-63-5
Perform noble work and strengthen the leader.
1875 10-85-42
Rejoice, sport and play with sons and grandsons.
1876 10-191-3
A common purpose is laid before one.
1881 6-75-6
Have the strength of controlling reins.
1884 8-26-22
There shall be control over wealth
1886 3-30-12
Budgets are formal quantitative statements of the resources set aside for carrying out planned activities over given periods of time.
1887 5-55-1
Swift horses are to be easily controlled.
1889 10-2-4
Agni corrects the faults and failures.
1794 10-101-2
1797 - repeat 1788
1805 1-17-4
1808 10-191-2
1809 10-191-3
1810 10-191-4
1811 5-59-6
1812 5-60-5
1815
1816
1817
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1819
1820
1821
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1831
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1849
1850
1851
1852
1853
1855
1863
1864
1868
1869
1870
1871
1872
1873 9-63-5
1875 10-85-42
1876 10-191-3
1881 6-75-6
1884 8-26-22
1886 3-30-12
1887 5-55-1
1889 10-2-4
Additional Materials
https://swissentrepreneursmagazine.com/index.php/2018/12/13/dr-frawley-speaks-about-his-work-and-vision-for-vedic-management/
The Rishi as the Vedic Model of Leadership
Dr David Frawley
December 22, 2017
https://www.vedanet.com/the-rishi-as-the-vedic-model-of-leadership/
A VEDIC INTEGRATION OF TRANSITIONS IN MANAGEMENT THOUGHT: TOWARDS TRANSCENDENTAL MANAGEMENT @BULLET
January 2005
Project: Spirituality in Management, Leadership and Human Development
Authors:
Subhash Sharma
Indus Business Academy
https://www.researchgate.net/publication/304885202_A_VEDIC_INTEGRATION_OF_TRANSITIONS_IN_MANAGEMENT_THOUGHT_TOWARDS_TRANSCENDENTAL_MANAGEMENT_BULLET
Revisiting Vedic management
Applied Mythology
By Devdutt Pattanaik
Published on 12th September, 2015, in the Economic Times.
https://www.aryasamajindore.com/component/tags/tag/vedic-management
Better Management & Effective Leadership Through the Indian Scriptures
Narayanji Misra
Pustak Mahal, 18-Sept-2007 - Management in literature - 207 pages
Management as a subject and various theories associated with it are largely considered as brainchild of the West. the moment this topic is raised, the names of western thinkers, such as F.W. Taylor, Robert Owen and Peter F. Drucker, come to our mind. However, the fact is that all the management theories and hypotheses propounded so far, draw heavily from the Indian scriptures. Indian sages and gurus, like Sukra, Kautilya and Vedavyas laid the foundation to better management through their literary works as early as in the pre-Christian era. This book, Better Management and Effective Leadership through the Indian Scriptures, aims at discovering the treasure hidden in the Indian texts, making the management scholars all over the world feel proud of our literary heritage and appreciate the farsightedness of the Indian thinkers. It is an endeavour to reveal that, be it in any sphere of academics, Indian scholars were in no way secondary to their western counterparts; they were rather the precursors.
http://www.businessworld.in/article/Modern-Vis-vis-Vedic-Approach-To-Management/15-06-2016-99213/
https://xn--j2b3a4c.com/rigveda/1/11/2
https://www.aurobindo.ru/workings/matherials/rigveda/
Ud 7.5.2022, 21.12.2021, 10 Dec 2021
Pib 29 Oct 2021
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